आप सबके प्रति मेरा भगवद भाव से नमन
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🔱 रावण और भगवान् राम दोनों ही शिव की पूजा और आराधना करते हैं। पर वस्तुतः दोनों की आराध्य के प्रति भिन्न भावना है। एक के लिए वह 'अहं' की आराधना है और दूसरे के लिए 'विश्वास' की। भगवान् शिव स्वयं सहज रूप में विश्वास है। 'अहं' तो उनके लिए पद मात्र है जो विश्व के विविध कार्यो के संचालन की दृष्टि से निर्मित हुआ है। सकाम व्यक्ति बहुधा पद को महत्व देता है, क्योंकि वह सत्ता प्रिय होता है।
भगवान् राम लंका आक्रमण के पूर्व शिव-लिंग की स्थापना करते हैं। नाम रखा जाता है 'रामेश्वर' । अपना स्वामी मानकर उन्हें नमन करते हैं, उनकी पूजा करते हैं। पर रावण केवल उन्हें अपने उत्थान का साधन मात्र मानकर व्यवहार करता है। उसकी पूजा का रूप यही है। वह शिर काटकर चढ़ा देता है। तुलना में राम तो केवल पुष्पार्पण करते हैं। इसका अभिप्राय क्या ? वस्तुतः अपने आराध्य को अर्पण करना चाहिए, उसी से वह प्रसन्न भी होता है। पर रावण ह्दय नहीं शिर देता है। वह भी एक चतुर व्यापारी की भांति ; जो बुद्धिमानी से ऋण देता है, इस आशा से कि वह अधिक बढ़कर लौटेगा। वह शिर के बदले में असंख्य शिर उत्पन्न होने की क्षमता प्राप्त करता है। उसके लिए शिव ऐश्वर्य और बल के दाता हैं। इसीलिए ऐश्वर्य और बल के मिलते ही वह उनको भी लघु बनाने की चेष्टा करता है। स्वयं उनके यहाँ जाकर पूजन करने के स्थान पर वह यही चाहता है कि वे लंका आकर पूजन लें। शिव को यह स्वीकार भी करना पड़ा।
*बेद पढ़े बिधि शंभु सभीत,*
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🔱 रावण और भगवान् राम दोनों ही शिव की पूजा और आराधना करते हैं। पर वस्तुतः दोनों की आराध्य के प्रति भिन्न भावना है। एक के लिए वह 'अहं' की आराधना है और दूसरे के लिए 'विश्वास' की। भगवान् शिव स्वयं सहज रूप में विश्वास है। 'अहं' तो उनके लिए पद मात्र है जो विश्व के विविध कार्यो के संचालन की दृष्टि से निर्मित हुआ है। सकाम व्यक्ति बहुधा पद को महत्व देता है, क्योंकि वह सत्ता प्रिय होता है।
भगवान् राम लंका आक्रमण के पूर्व शिव-लिंग की स्थापना करते हैं। नाम रखा जाता है 'रामेश्वर' । अपना स्वामी मानकर उन्हें नमन करते हैं, उनकी पूजा करते हैं। पर रावण केवल उन्हें अपने उत्थान का साधन मात्र मानकर व्यवहार करता है। उसकी पूजा का रूप यही है। वह शिर काटकर चढ़ा देता है। तुलना में राम तो केवल पुष्पार्पण करते हैं। इसका अभिप्राय क्या ? वस्तुतः अपने आराध्य को अर्पण करना चाहिए, उसी से वह प्रसन्न भी होता है। पर रावण ह्दय नहीं शिर देता है। वह भी एक चतुर व्यापारी की भांति ; जो बुद्धिमानी से ऋण देता है, इस आशा से कि वह अधिक बढ़कर लौटेगा। वह शिर के बदले में असंख्य शिर उत्पन्न होने की क्षमता प्राप्त करता है। उसके लिए शिव ऐश्वर्य और बल के दाता हैं। इसीलिए ऐश्वर्य और बल के मिलते ही वह उनको भी लघु बनाने की चेष्टा करता है। स्वयं उनके यहाँ जाकर पूजन करने के स्थान पर वह यही चाहता है कि वे लंका आकर पूजन लें। शिव को यह स्वीकार भी करना पड़ा।
*बेद पढ़े बिधि शंभु सभीत,*
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